Friday, 29 December 2017

शाकाहार

👌🏽👌🏽Bahut hi sundar kavita 👌🏽👌🏽

*कंद-मूल खाने वालों से*
मांसाहारी डरते थे।।

*पोरस जैसे शूर-वीर को*
नमन 'सिकंदर' करते थे॥

*चौदह वर्षों तक खूंखारी*
वन में जिसका धाम था।।

*मन-मन्दिर में बसने वाला*
शाकाहारी *राम* था।।

*चाहते तो खा सकते थे वो*
मांस पशु के ढेरो में।।

लेकिन उनको प्यार मिला
' *शबरी' के जूठे बेरो में*॥

*चक्र सुदर्शन धारी थे*
*गोवर्धन पर भारी थे*॥

*मुरली से वश करने वाले*
*गिरधर' शाकाहारी थे*॥

*पर-सेवा, पर-प्रेम का परचम*
चोटी पर फहराया था।।

*निर्धन की कुटिया में जाकर*
जिसने मान बढाया था॥

*सपने जिसने देखे थे*
मानवता के विस्तार के।।

*नानक जैसे महा-संत थे*
वाचक शाकाहार के॥

*उठो जरा तुम पढ़ कर देखो*
गौरवमय इतिहास को।।

*आदम से आदी तक फैले*
इस नीले आकाश को॥

*दया की आँखे खोल देख लो*
पशु के करुण क्रंदन को।।

*इंसानों का जिस्म बना है*
शाकाहारी भोजन को॥

*अंग लाश के खा जाए*
क्या फ़िर भी वो इंसान है?

*पेट तुम्हारा मुर्दाघर है*
या कोई कब्रिस्तान है?

*आँखे कितना रोती हैं जब*
उंगली अपनी जलती है

*सोचो उस तड़पन की हद*                   
जब जिस्म पे आरी चलती है॥

*बेबसता तुम पशु की देखो*
बचने के आसार नही।।

*जीते जी तन काटा जाए*,
उस पीडा का पार नही॥

*खाने से पहले बिरयानी*,
चीख जीव की सुन लेते।।

*करुणा के वश होकर तुम भी*
गिरी गिरनार को चुन लेते॥

*शाकाहारी बनो*...!

ज्ञात हो इस कविता का जब TV पर प्रसारण हुआ था तब हज़ारो लोगो ने मांसाहार त्याग कर *शाकाहार* का आजीवन व्रत लिया था।

🙏🌷🍏

Saturday, 4 November 2017

नारी

मैं एक नारी हूँ,मैं सब संभाल लेती हूँ
हर मुश्किल से खुद को उबार लेती हूँ

नहीं मिलता वक्त घर गृहस्थी में
फिर भी अपने लिए वक्त निकाल लेती हूँ

टूटी होती हूँ अन्दर से कई बार मैं
पर सबकी खुशी के लिए मुस्कुरा लेती हूँ

गलत ना होके भी ठहराई जाती हूँ गलत
घर की शांति के लिए मैं चुप्पी साध लेती हूँ

सच्चाई के लिए लड़ती हूँ सदा मैं
अपनों को जिताने के लिए हार मान लेती हूँ

व्यस्त हैं सब प्यार का इजहार नहीं करते
पर मैं फिर भी सबके दिल की बात जान लेती हूँ

कहीं नजर ना लग जाये मेरी अपनी ही
इसलिए पति बच्चों की नजर उतार लेती हूँ

उठती नहीं जिम्मेदारियाँ मुझसे कभी कभी
पर फिर भी बिन उफ किये सब संभाल लेती हूँ

बहुत थक जाती हूँ कभी कभी
पति के कंधें पर सर रख थकन उतार लेती हूँ

नहीं सहा जाता जब दर्द,औंर खुशियाँ
तब अपनी भावनाओं को कागज पर उतार लेती हूँ

कभी कभी खाली लगता हैं भीतर कुछ
तब घर के हर कोने में खुद को तलाश लेती हूँ

खुश हूँ मैं कि मैं किसी को कुछ दे सकती हूँ
जीवनसाथी के संग संग चल सपने संवार लेती हूँ

हाँ मैं एक नारी हूँ,मैं सब संभाल लेती हूँ
अपनों की खुशियों के लिए अपना सबकुछ वार देती हूँ


Friday, 3 November 2017

हंसी

​मैं शायद हूँ...​
​यकीन तुम हो...​

​मेरे चेहरे पे ठहरी एक हँसी तुम हो...​💞💞💞🦂

तोहफा

उसने पूछा कौन सा तोहफा दूँ तुम्हे,..💞💞

मैंने कहा वही शाम जो अब तक उधार है..💞💞🦂

दर्द

​न आँखों से छलकते हैं ,​
​न कागज पर उतरते हैं ...​

​कुछ दर्द ऐसे भी होते हैं ,​
​जो बस भीतर ही पलते हैं ...​🦂

हमारा बचपन

मिट्टी भी जमा की…
और खिलौने भी बना कर देखे...
ज़िन्दगी कभी न...
मुस्कुराई फिर बचपन की तरह..​!!!🦂

बचपन

एक दिन जब उम्र ने तलाशी ली,
तो जेब से लम्हे बरामद हुए..
कुछ ग़म के थे, कुछ नम से थे कुछ टूटे हुए थे,
बस कुछ ही सही सलामत मिले.. जो बचपन के थे!

Monday, 30 October 2017

अपनो के लिये

मिलते जुलते रहा करो...

धार वक़्त की बड़ी प्रबल है,
इसमें लय से बहा करो,
जीवन कितना क्षणभंगुर है,
मिलते जुलते रहा करो।

यादों की भरपूर पोटली,
क्षणभर में न बिखर जाए,
दोस्तों की अनकही कहानी,
तुम भी थोड़ी कहा करो।

हँसते चेहरों के पीछे भी,
दर्द भरा हो सकता है,
यही सोच मन में रखकर के,
हाथ दोस्त का गहा करो।

सबके अपने-अपने दुःख हैं,
अपनी-अपनी पीड़ा है,
यारों के संग थोड़े से दुःख,
मिलजुल कर के सहा करो।

किसका साथ कहाँ तक होगा,
कौन भला कह सकता है,
मिलने के कुछ नए बहाने,
रचते-बुनते रहा करो।

मिलने जुलने से कुछ यादें,
फिर ताज़ा हो उठती हैं,
इसीलिए यारों नाहक भी,
मिलते जुलते रहा करो।

  -अपनों को समर्पित...🎈🙏😊

Saturday, 28 October 2017

मैं कोशिश में हूँ कि

मैं कोशिश में हूँ
कि वो मुझको मना ले
छोड़ के गया था
जिस चौखट पर
आ कर मुझको
उस से उठा ले
मेरी आवाज़ में अब
वो ज़ोर नहीं रहा
वो चले तो उसको
आवाज़ दे कर बुला ले
मैंने रफ्ता रफ्ता ज़िंदगी को
उधड़ते देखा है
कोई धागा ना बचा है
जो रफ़ू तो लगा ले
मैंने उसके अन्दाज़ में
जीने की कोशिश कर ली कई बार
अब क् या तरकीब करूँ
जो इस रिश्ते को बचा ले
आज सज़ा भी पूछे
किस जुर्म के लिए नवाज़ा गया है उसे
होंठ कुछ ना बोले ,लोग भी
बस आँखों से बयान ले

"डफोळ नहीं हुशीय़ार "

"डफोळ नहीं हुशीय़ार "

एक डोकरो गाव जावे हों ! रास्त में एक जवानं रों सागो हुयग्यो !जवानं बोल्यों बाबा आपा रों गाव चार कोश हे ! दो कोश थे म्हारे खादहे बेठज्या अर दो कोश हु थारे खान्द्ध बेठज्यासू तों रस्तो सोरों पारर हुयज्यासी ! डोकरो बोल्यों के बेटा तु तों जवानं हे पण में थारो भार कोनी सांभ स्कुं !

यू बाता कारता कारता रस्ता में एक नाळो देख डोकरो आपरी फाटयोड़ी पगरखया हाथ में ले लि ,पण जवानं तो आपरी नुंवी जूत्या पेहरेयोड़ी राखी अर नाळो पारर क्रर लियो ! डोकरो मन में समझयों क ओँ तों डफोळ हे जको जूत्या पाणी में भीजोऔर खराब कर लि !
                     इताक में दोंन्यो जणँ गाव पुग्गया ! डोकरो हाथ रा ईशारा सू बतायो क बों म्हारो घर हे ! जवानं एक काकरो हाथ में लियो अर जोर सू कीवाड़ माथे फेंक्यो ही ! डोकरा रीं बेटी घर रों आडोखोल्यो ! जवानं पिवण ने पानी मांग्यो ! छोरी घर सू पाणी ल्याई ,जणा जवानं पुछयों क पाणी काचो हे क पाको !
छोरी बोली क पाणी हाल काचो ही हे ! डोकरो रस्ता में जवानं सू हुई सगळी बाता आपरी बेटी ने बताई अर कहयों क ओँ छोरो तों सफा डफोळ ह , तु ईण रीं बाता में ना आईयो !
                                     
छोरी बोली क नहीं बाबा ओँ जवानं डफोंळ कोनी घणो हुनशियार ह ! डोकरो बोल्यों बेटी किया ! छोरी बोली ओँ थाने कहयो क दोय कोश म्हे थारे माथेबेठु अर दोय कोश थे मारे माथह बेठौ ! मतलब दोय कोश थे बाता करों अर दों कोश ओँ बाता करेला !

इता में रस्तो पारर हुय जावेला ! रस्ता में पाणणी रा नाळा ने देख ओँ जूत्या कोनी खोली आ भी समझदारी री बात हे ओँ आपरी जानं की कीमत ने जूत्या सू बतती मानी ही ! अर ओँ जूत्या ने हाथ में  कोनी लि ओँ थींक क्रयो ! पाणी में निच काँच कों टूकड़ो,भाटा या की ओर पग में लाग ज्याव या जहरिलो ज़िव ज़िनावर काट ज्याव ईण वास्ते ओँ जूत्या सू ज्यादा आपरी रक्षा रीं बात सोची !       
                अर जूत्या पेहरया ही पाणी रा नाळा ने पारर क्रयो ! ओँ काकरो आडा माथे फैक्यो ऊण टेम म्हे सिनानं करही ! काकरा री लागया सू आडा री आवाज सूण म्हे समझ गी क कोई कीवाड़ कन्ने आयो हे ईण सू म्हे फटाफट कपड़ा पहरया अर आडो खोल्ल दियो ! ईण सू थाने उडीकणो कोनि पड़यो !

ओँ म्हने पुछयों पाणी काचो हे  .....मतलब म्हे क्वारी हु या प्ररणीज्योड़ी हु ! म्हे बोली पाणी काचो हे मतलब म्हे हाल ताही परणिज्योड़ी कोनी ! जवानं का सगळा लखण डफोंळपणा रा कोनी घणी हुशीय़ारकी रा हे ! आ सूण अर डोकरो आपरी बेटी री सगाई जवानं सू पक्की करण रीं तेवड़ लि  ?

          "रामो ही राम ओँ हुशीय़ारियो "

Friday, 27 October 2017

दिल

नदी तो बहुत है यहाँ
बस पानी नही है,
जिंदगी बहुत है यहाँ
बस जिन्दगानी नही है।
कोरे कागज और कुछ
आड़ी तिरछी रेखाएं,
टूटे बिखरे शब्द, पर
कोई कहानी नही है।।
इज़हारे मोहब्बत रेत
और पेड़ो पे की हो,
फिर मिटायी न हो ,
ऐसी कोई जवानी नही है।
आग लगी नफरत की
गाँव, शहर की बस्ती में।
बुझाये तो बुझाये कैसे,
दिल है मगर आंख में
पानी नही है।।
आंख में पानी नही है....

आजकल

*पत्थरों के शहर में कच्चे मकान कौन रखता है...!*

*आजकल हवा के लिए रोशनदान कौन रखता है...!!*

*अपने घर की कलह से फुरसत मिले तो सुने…!*

*आजकल पराई दीवार पर कान कौन रखता है...!!*

*खुद ही पंख लगाकर उड़ा देते हैं चिड़ियों को..!*

*आज कल परिंदों मे जान कौन रखता है..!!*

*हर चीज मुहैया है मेरे शहर में किश्तों पर..!*

*आज कल हसरतों पर लगाम कौन रखता है..!!*

*बहलाकर छोड़ आते है वृद्धाश्रम में मां_बाप को..!*

*आज कल घर में पुराना सामान कौन रखता है…!!*

*सबको दिखता है दूसरों में इक बेईमान इंसान…!*

*खुद के भीतर मगर अब ईमान कौन रखता है…!!*

*फिजूल बातों पे सभी करते हैं वाह-वाह..!*

*अच्छी बातों के लिये अब जुबान कौन रखता है**

Thursday, 26 October 2017

आज का आदमी

दूसरों को देख भागा जा रहा है आदमी
टुकड़ों टुकड़ों में बिखरता जा रहा है आदमी

अंत इच्छाओं का इसकी तो कभी होता नहीं
पास सरिता, फिर भी प्यासा जा रहा है आदमी

ज़िन्दगी के मंच पर किरदार जो भी मिल गया
उसको  शिद्दत से निभाता जा रहा है आदमी

फांकता है धूल ही गुणवान खाली बैठकर
अब तुला पर धन की तोला जा रहा है आदमी

रूप ,दौलत की सुरा का पान बस करने लगा
डूब कर इनमें बहकता जा रहा है आदमी

जन्म से ले मौत तक का तय इसे करना सफर
खुद  मोड़ मुड़ता जा रहा है आदमी

Love ka मौसम

सर्द मौसम में इश्क़ को अपने, कुछ यु आजमाते है,
तुम आँखे बंद करो अपनी, हम तुम्हे सीने से लगाते है...!!!
रिश्ता अपना ये जो ठहर सा गया है कुछ  वक़्त से,
गुफ़्तु फिर वही करके, इसे फिर से आगे बढ़ाते है...!!!
कुछ याद तुम मुझे करो, कुछ याद हम तुम्हे करें,
ख़्यालो में फिर से एक दूसरे के "हम तुम" खो जाते है...!!!
जब आ ही गया है, एक बार फिर से ये प्यार का मौसम,
दूरियां दिलों की मिटा के, हम फिर से एक हो जाते है...!!!
यु तो याद करने से तुझे, ठहर रहा मेरा हर लम्हा है,
आखिरी बार ही सही, लम्हों को फिर से यादगार बनाते है..🦂

Monday, 23 October 2017

मुक़द्दर

==मुक़द्दर ने जाल डाले हैं==
ख़ुदाया खेल तेरे भी बहुत निराले हैं
कहीं पे भूख बहुत है, कहीं निवाले हैं
तमाम ज़ुल्मो सितम सह रहे हैं अर्से से
गरीब लोगों के फिर भी ज़ुबाँ पे ताले हैं
कोई भी ख़ौफ़ उन्हें क्या डराएगा आख़िर
दिलों में हौसला चट्टान सा जो पाले हैं
जिन्होंने काँधों पे चढ़कर के देखी है दुनिया
न देखे पाँव में कितने हमारे छाले हैं
नसीब किसका हमेशा जवान रहता है
तमाम महलों में अब मकड़ियों के जाले हैं
न ऊब जाये कहीं आदमी ख़ुशी भर से
तभी ख़ुदा ने गमों के भी लम्हे ढाले हैं
न जाने कौन से लम्हे में मौत आ जाये
कदम कदम पे मुक़द्दर
ने जाल डाले हैं

गांव की बातड़ली

लटकै भींता लेवड़ा, छातां में चमचेड़ ।
गजबी म्हे हां गामड़ा, म्हांनै थूं ना छेड़ ।।

मुरदी मुरदी गावड़ी, मुरदा मुरदा बैल ।
मुरदी अठै लुगावड़ी, मुरदा टाबर गैल ।।

कुड़तौ लीरम लीर है, कज्छ अजूबै कट्ट ।
आगौ आगौ साबतौ, पीच्छौ सफ्फा चट्ट ।।

तार तार सलवार सूं, बारै झांकै आब ।
कारी पर कारी चढी, कुड़तै दियौ जवाब ।।

बांका चूंका ढुंढिया, बांकी चूंकी पोळ ।
पोळी आगै भींटकौ, ओ घर कीं रौ बोल ।।

घास फूस रौ झूंपड़ौ, भींटेरां री बाड़ ।
गूंथ बणायौ टाटियौ, बीं री करसी आड़ ।।

।। रामस्वरुप किसान ।।बातड़ली

खुशियाँ

💫 *हम तो खुशियाँ
उधार देने का*
*कारोबार करते हैं,साहब*

*कोई वक़्त पे लौटाता नहीं है*
*इसलिए घाटे में हैं....*

हुस्न

तेरा हुस्न बयाँ ना हो सका मुझसे,

थक गया शायरी करते करते..!!

#तन्हा_पीके🦂

Saturday, 15 April 2017

गजल

*ग़ज़ल:*

खुद को इतना भी मत बचाया कर,
बारिशें हो तो *भीग जाया कर*।

चाँद लाकर कोई नहीं देगा,
अपने चेहरे से *जगमगाया कर*।

दर्द हीरा है, दर्द मोती है,
दर्द आँखों से *मत बहाया कर*।

काम ले कुछ हसीन होंठो से,
बातों-बातों में *मुस्कुराया कर*।

धूप मायूस लौट जाती है,
छत पे *किसी बहाने आया कर*।

कौन कहता है दिल मिलाने को,
कम-से-कम *हाथ तो मिलाया कर* !!!

🌿🌿🌿 🌿🌿🌿

Monday, 10 April 2017

मां

सुन्दर निश्छल मन-सा,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
कभी धूप-सी कड़क,
कभी आंचल नरम-सा,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
एक सख्त से तने-सी कभी डांटते हुए,
फलों से लदी डाली-सी कभी समझते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
कभी कानों को मोड़ते हुए,
कभी सर पर हाथ सहलाते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
हार में हौसला बढ़ाते हुए,
तो जीत में सबसे ज्यादा खुशी मनाते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
खुद भगवान भी धरती पर अवतार,
बार-बार लेता है,
क्योंकि मां का रूप कुछ निराला ही होता है।

Friday, 7 April 2017

तुम

हमनशीं हमनवा कहूँ या हमसफ़र कह दूँ
शब कहूँ रात कहूँ दिन कहूँ सहर कह दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव के हैं क्या कहने
तपती दोपहर को फिर कैसे दोपहर कह दूँ
तेरी तारीफ़ में लिखे हैं जो कुछ गीत ग़ज़ल
पास मेरे तो ज़रा और जो ठहर कह दूँ
मेरी बस्ती में न बिजली है सड़क पानी है
शहर नक़्शे में है पर कैसे मैं शहर कह दूँ
वो कड़वे बोल जो अलगाव को पैदा करें
ऐसे बोलों को भला क्यूँ न फिर ज़हर कह दूँ
तुम मिले हो तो जीवन में पाया है सकून
वरना ढाए है ज़माने ने जो क़हर कह दूँ

Wednesday, 5 April 2017

मायका

ससुराल भी कीमती होता है पर मायका आखिर मायका होता है। यहाँ मैं मैं होती हूँ,
जिम्मेदारियों का किसे पता होता है।
यहाँ पर जीती हूँ बचपन अपना
अल्हङपन मेरा यहीं तो सदा होता है।
मायका आखिर मायका होता है।।  सरपट नहीं दौङती यहाँ मैं
फुरसत का यहाँ समां होता है।
बेबाक हंसी और नॉन स्टॉप बातें,
बिस्तर पर खाना और बेहिसाब लाड।
ये सब मायके में ही तो होता है।।
मायका आखिर मायका होता है।।  वो रोना माँ की गोद में
वो उनकी आँखो में मेरे लिए परवाह।
थकी हुई मेरी माँ करने नहीं देती मुझे कोई काम,
ये हक भी तो सिर्फ यहाँ होता है।
मायका आखिर मायका होता है।। भाई से लड़ना और पापा पर बिगड़ना, दिल कितना miss करता है।
कुछ पल ही सही - मैं बेफिक्र बेबाक होती हूँ
मेरी मेहनत का स्वाद तारीफों में सुनायी पड़ता है।
मायका आखिर मायका होता है।। मेरे शौंकों का ख्याल, साथ देना हर हाल
माँ के चेहरे की थकान से जान पड़ता है।
याद आती हो माँ तुम अकेलेपन में
मन करता है ले आऊँ पापा को अपने पास मैं।
भाई से लड़ना अच्छा था, जिन्दगी से लड़ना बहुत मुश्किल लगता है।।
मायका आखिर मायका होता है।। यहाँ हर याद को संजो कर रखा जाता है
हमारे बचपन का चश्मा आज भी यहाँ इतराता है।
पहले ग्लास तोड़ने का किस्सा खुशी से सुनाया जाता है।
इन यादों में दिल डूब के खोता है ।।
क्योंकि मायका आखिर मायका होता है।। आज भी दूध में वो स्वाद नहीं आता जो पापा बनाते थे,
आलू के परांठे तो मैं भी बनाती हूँ पर माँ जैसे कभी बन नहीं पाते।
उस खाने में उनका प्यार जो होता है।।
मायका आखिर मायका होता है।। आज मैं माँ भी हूँ,
बिटिया को देख कर मेरा दिल हिलोरे लेता है।
पर खुद माँ पापा की बेटी होने का सुख कुछ अलग ही होता है।।
क्योंकि मायका आखिर मायका होता है।।

गजल

दर्द महफ़िल में छुपाना रह गया
बेहिसी में मुस्कुराना रह गया
आजमा कर आये हैं रिश्ते सभी
सिर्फ ख़ुद को आजमाना रह गया
साथ में था कारवाँ जिसके कभी
हश्र में तन्हा दिवाना रह गया
मालो ज़र हमने कमाया उम्र भर
इसलिए नेकी कमाना रह गया
पीठ दिखलाना कभी सीखा नहीं
मेरे हिस्से सर कटाना रह गया
हम जहाँ भर को जगाने चल पड़े
और ख़ुद को ही जगाना रह गया
कर चुके सब ही नवाजिश,आपका
सिर्फ़ इक तोहमत लगाना रह गया
___रामेन्द्र

Tuesday, 4 April 2017

शायरी

*जायका अलग है, हमारे लफ़्जो का...
*कोई समझ नहीं पाता... कोई भुला नहीं पाता...*😔


गज़ब की धूप है शहर में
फिर भी पता नहीं,
लोगों के दिल यहाँ
पिघलते क्यों नहीं...!!!


परवाह ही बताती है कि*
*ख़्याल कितना है...*
*वरना कोई तराजू नहीं होता*
*रिश्तो में...!!!!*


 तु कितनी भी खुबसुरत क्यूँ ना हो ए ज़िंदगी..
खुशमिजाज़ दोस्तों के बगैर तु अच्छी नहीं लगती..


 *न हथियार से मिलते हैं न अधिकार से मिलते हैं....!!*

*दिलों पर कब्जे बस अपने व्यवहार से मिलते है....!!*🌹


*वो बुलंदियाँ भी*
*किस काम की जनाब* ,

*इंसान चढ़े और*
*इंसानियत उतर जाये**फितरत किसी की*


*ना आजमाया कर ऐ जिंदगी*।
*हर शख्स अपनी हद में*
*बेहद लाजवाब होता है*..।.

जिंदगी

*_़़़़़वाह री जिंदगी़़़़़़_*

दौलत की भूख एेसी लगी कि कमाने निकल गए!
जब दौलत मिली तो हाथ से रिश्ते निकल गए!
बच्चों के साथ रहने की फुरसत ना मिल सकी!
फुरसत मिली तो बच्चे कमाने निकल गए!

*_़़़़़वाह री जिंदगी़़़़़़_*

मर्दानगी

कैसी ये मर्दानगी ???
.
मैं मर्द अति बलशाली,
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ
कलाई पर बहन जब बांधती है राखी,
तो उसकी रक्षा की कसमें खाता हूँ
पर पत्नी की एक छोटी सी भी गलती,
मैं सह नहीं पाता हूँ
निःसंकोच उस पर हाथ उठाता हूँ
अरे ! मर्द हूँ,
इस तरह अपनी मर्दानगी दिखाता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ.
.
मेरी बहन की तरफ कोई आंख उठा कर तो देखे,
मैं सबसे बड़ा गुंडा बन जाता हूँ
बेझिझक अपराध फैलाता हूँ
पर सड़क पर चल रही लड़की को देखकर,
अपने मनचले दिल को रोक नहीं पाता हूँ
उस पर अश्लील ताने कसता हूँ, सीटियाँ बजाता हूँ
शर्म लिहाज़ के सारे पर्दे कहीं छोड़ आता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ.
.
और गर कोई मेरा दिल तोड़ दे
या मेरे प्रेम प्रस्ताव को कर दे मना,
क्रोध के मैं परवान चढ़ जाता हूँ
एसिड वार की आग उगलता हूँ
उसको अपनी हवस का शिकार बनाता हूँ
और वैसे भी लड़की तो एक वस्तु है
और लड़कों के हर पाप माफ़ हैं,
यही बात मैं मंच पर चढ़कर माइक पर चिल्लाता हूँ
अरे भई! नेता हूँ,
अपने पद की गरिमा भूल जाता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
.
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ.
पर एक बात मैं अक्सर भूल जाता हूँ
इस कड़वी सच्चाई को झुठलाता हूँ
कि मर्द बनने की नाकाम कोशिश में,
मैं अपनी आत्मा का सौदा करता हूँ
अपनी भावनाओं का खून कर, हर बार मैं मरता हूँ
संवेदनहीन मैं, शायद एक मर्द तो बन जाता हूँ
पर अक्सर मैं एक इंसान बनना भूल जाता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
अक्सर एक इन्सान बनना भूल जाता हूँ...

Monday, 3 April 2017

इन्सान

”हक़ीकत”
इंसान जब “भगवान” से
लेना हाे तब “लाखों करोड़ों” की चाहत रखता है !!
लेकिन
जब “भगवान ” के लिए देना हो तो ,
जेब में ”सिक्के” ढूँढता है !!:

गजल

ग़ज़ल::=-
जब कमाने में डट गई दुनिया
सच के रस्ते से हट गई दुनिया
दौर यह कैसा आ गया देखो
ज़िंदा लाशों से पट गई दुनिया
देखकर हाल आदमीयत का
मेरे तो दिल की फट गई दुनिया
सिर्फ़ अपना ही फ़ायदा देखो
मंत्र अच्छा ये रट गई दुनिया
दूरियाँ दिल में बढ़ गईं फिर भी
लोग कहते हैं घट गई दुनिया
आदमीयत से तोड़ कर रिश्ता
आज मज़हब में बट गई दुनिया
जब से इंसान में दिमाग़ आया
कितने हिस्सों में कट गई दुनिया
___रामेन्द्र

यादें

हसरतों की बस रवानी रह गई
रास्ते में वो जवानी रह गई
रुख़ हवा का कुछ समझ पाई नहीं
सोचती कुछ जिंदगानी रह गई
उन चहकती चूड़ियों की खुश खनक
याद की बस मेहरबानी रह गयी
कब हुई वर्षा , खिले थे कब कमल
बस सुनाने को कहानी रह गई
उस कली का रंग क्या ,क्या थी महक
सोचती रातों की रानी रह गई
क्यों परी को वक्त ने यों खा लिया
खींजती आकाशवानी रह गई
है रगों में दर्द , सीने में जलन
ज़ख़्म की दिल पर निशानी रह गई
वो
झर कर ,मिला है धूल में
याद की खुशबू सुहानी रह गई

बचपन

एक कविता आप सबको समर्पित ..........।।
~~~~~~~~~~~~~~~
मन की स्याही से,
जिंदगी के पन्नों पर,
मन मीत के लिए ,
कुछ कहने को,
मन करता है ।।

आज एक बार फिर से,
जीवन को बचपन सा,
जीने को मन करता है ।।

उम्मीदे बहुत है ,
स्नेही जिंदगी तुमसे
गर तुम मेरा साथ दो ।।

बचपन मेँ की गई
शेतानियो से अब
डर सा लगता है
आज एक बार फिर से
जीवन को बचपन सा
जीने को मन करता है ।।

ये लो पानी फेर दो ,
जिंदगी के उन पन्नों पर,
जो बचपन से अलग लिखी हो।।

जिसमें उदासी की ही,
कोई नज़्म लिखी हो ,
या फिर से कोई ,
अनमनी गज़ल लिखी हो ।।

अरे कभी तो मुझे
खुश नुमायितो से
साक्षात्कार हो लेने दो ।।

आज फिर से मुझे
उन तमाम यादों के
जालों में मकड़ी बन
होले-होले से हल्का
हो लेने दो ।।

आज एक बार फिर से
जीवन को बचपन सा
जीने को मन करता है।।
∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆

Sunday, 2 April 2017

Desh prem

मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँ तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी,
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गाँव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्वज को थमा दो।
सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।