Monday, 23 October 2017

मुक़द्दर

==मुक़द्दर ने जाल डाले हैं==
ख़ुदाया खेल तेरे भी बहुत निराले हैं
कहीं पे भूख बहुत है, कहीं निवाले हैं
तमाम ज़ुल्मो सितम सह रहे हैं अर्से से
गरीब लोगों के फिर भी ज़ुबाँ पे ताले हैं
कोई भी ख़ौफ़ उन्हें क्या डराएगा आख़िर
दिलों में हौसला चट्टान सा जो पाले हैं
जिन्होंने काँधों पे चढ़कर के देखी है दुनिया
न देखे पाँव में कितने हमारे छाले हैं
नसीब किसका हमेशा जवान रहता है
तमाम महलों में अब मकड़ियों के जाले हैं
न ऊब जाये कहीं आदमी ख़ुशी भर से
तभी ख़ुदा ने गमों के भी लम्हे ढाले हैं
न जाने कौन से लम्हे में मौत आ जाये
कदम कदम पे मुक़द्दर
ने जाल डाले हैं

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