Friday, 7 April 2017

तुम

हमनशीं हमनवा कहूँ या हमसफ़र कह दूँ
शब कहूँ रात कहूँ दिन कहूँ सहर कह दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव के हैं क्या कहने
तपती दोपहर को फिर कैसे दोपहर कह दूँ
तेरी तारीफ़ में लिखे हैं जो कुछ गीत ग़ज़ल
पास मेरे तो ज़रा और जो ठहर कह दूँ
मेरी बस्ती में न बिजली है सड़क पानी है
शहर नक़्शे में है पर कैसे मैं शहर कह दूँ
वो कड़वे बोल जो अलगाव को पैदा करें
ऐसे बोलों को भला क्यूँ न फिर ज़हर कह दूँ
तुम मिले हो तो जीवन में पाया है सकून
वरना ढाए है ज़माने ने जो क़हर कह दूँ

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