हमनशीं हमनवा कहूँ या हमसफ़र कह दूँ
शब कहूँ रात कहूँ दिन कहूँ सहर कह दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव के हैं क्या कहने
तपती दोपहर को फिर कैसे दोपहर कह दूँ
तेरी तारीफ़ में लिखे हैं जो कुछ गीत ग़ज़ल
पास मेरे तो ज़रा और जो ठहर कह दूँ
मेरी बस्ती में न बिजली है सड़क पानी है
शहर नक़्शे में है पर कैसे मैं शहर कह दूँ
वो कड़वे बोल जो अलगाव को पैदा करें
ऐसे बोलों को भला क्यूँ न फिर ज़हर कह दूँ
तुम मिले हो तो जीवन में पाया है सकून
वरना ढाए है ज़माने ने जो क़हर कह दूँ
शब कहूँ रात कहूँ दिन कहूँ सहर कह दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव के हैं क्या कहने
तपती दोपहर को फिर कैसे दोपहर कह दूँ
तेरी तारीफ़ में लिखे हैं जो कुछ गीत ग़ज़ल
पास मेरे तो ज़रा और जो ठहर कह दूँ
मेरी बस्ती में न बिजली है सड़क पानी है
शहर नक़्शे में है पर कैसे मैं शहर कह दूँ
वो कड़वे बोल जो अलगाव को पैदा करें
ऐसे बोलों को भला क्यूँ न फिर ज़हर कह दूँ
तुम मिले हो तो जीवन में पाया है सकून
वरना ढाए है ज़माने ने जो क़हर कह दूँ
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