Saturday, 15 April 2017

गजल

*ग़ज़ल:*

खुद को इतना भी मत बचाया कर,
बारिशें हो तो *भीग जाया कर*।

चाँद लाकर कोई नहीं देगा,
अपने चेहरे से *जगमगाया कर*।

दर्द हीरा है, दर्द मोती है,
दर्द आँखों से *मत बहाया कर*।

काम ले कुछ हसीन होंठो से,
बातों-बातों में *मुस्कुराया कर*।

धूप मायूस लौट जाती है,
छत पे *किसी बहाने आया कर*।

कौन कहता है दिल मिलाने को,
कम-से-कम *हाथ तो मिलाया कर* !!!

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Monday, 10 April 2017

मां

सुन्दर निश्छल मन-सा,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
कभी धूप-सी कड़क,
कभी आंचल नरम-सा,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
एक सख्त से तने-सी कभी डांटते हुए,
फलों से लदी डाली-सी कभी समझते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
कभी कानों को मोड़ते हुए,
कभी सर पर हाथ सहलाते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
हार में हौसला बढ़ाते हुए,
तो जीत में सबसे ज्यादा खुशी मनाते हुए,
मां का रूप कुछ निराला ही होता है।
खुद भगवान भी धरती पर अवतार,
बार-बार लेता है,
क्योंकि मां का रूप कुछ निराला ही होता है।

Friday, 7 April 2017

तुम

हमनशीं हमनवा कहूँ या हमसफ़र कह दूँ
शब कहूँ रात कहूँ दिन कहूँ सहर कह दूँ
तेरी ज़ुल्फ़ों की घनी छाँव के हैं क्या कहने
तपती दोपहर को फिर कैसे दोपहर कह दूँ
तेरी तारीफ़ में लिखे हैं जो कुछ गीत ग़ज़ल
पास मेरे तो ज़रा और जो ठहर कह दूँ
मेरी बस्ती में न बिजली है सड़क पानी है
शहर नक़्शे में है पर कैसे मैं शहर कह दूँ
वो कड़वे बोल जो अलगाव को पैदा करें
ऐसे बोलों को भला क्यूँ न फिर ज़हर कह दूँ
तुम मिले हो तो जीवन में पाया है सकून
वरना ढाए है ज़माने ने जो क़हर कह दूँ

Wednesday, 5 April 2017

मायका

ससुराल भी कीमती होता है पर मायका आखिर मायका होता है। यहाँ मैं मैं होती हूँ,
जिम्मेदारियों का किसे पता होता है।
यहाँ पर जीती हूँ बचपन अपना
अल्हङपन मेरा यहीं तो सदा होता है।
मायका आखिर मायका होता है।।  सरपट नहीं दौङती यहाँ मैं
फुरसत का यहाँ समां होता है।
बेबाक हंसी और नॉन स्टॉप बातें,
बिस्तर पर खाना और बेहिसाब लाड।
ये सब मायके में ही तो होता है।।
मायका आखिर मायका होता है।।  वो रोना माँ की गोद में
वो उनकी आँखो में मेरे लिए परवाह।
थकी हुई मेरी माँ करने नहीं देती मुझे कोई काम,
ये हक भी तो सिर्फ यहाँ होता है।
मायका आखिर मायका होता है।। भाई से लड़ना और पापा पर बिगड़ना, दिल कितना miss करता है।
कुछ पल ही सही - मैं बेफिक्र बेबाक होती हूँ
मेरी मेहनत का स्वाद तारीफों में सुनायी पड़ता है।
मायका आखिर मायका होता है।। मेरे शौंकों का ख्याल, साथ देना हर हाल
माँ के चेहरे की थकान से जान पड़ता है।
याद आती हो माँ तुम अकेलेपन में
मन करता है ले आऊँ पापा को अपने पास मैं।
भाई से लड़ना अच्छा था, जिन्दगी से लड़ना बहुत मुश्किल लगता है।।
मायका आखिर मायका होता है।। यहाँ हर याद को संजो कर रखा जाता है
हमारे बचपन का चश्मा आज भी यहाँ इतराता है।
पहले ग्लास तोड़ने का किस्सा खुशी से सुनाया जाता है।
इन यादों में दिल डूब के खोता है ।।
क्योंकि मायका आखिर मायका होता है।। आज भी दूध में वो स्वाद नहीं आता जो पापा बनाते थे,
आलू के परांठे तो मैं भी बनाती हूँ पर माँ जैसे कभी बन नहीं पाते।
उस खाने में उनका प्यार जो होता है।।
मायका आखिर मायका होता है।। आज मैं माँ भी हूँ,
बिटिया को देख कर मेरा दिल हिलोरे लेता है।
पर खुद माँ पापा की बेटी होने का सुख कुछ अलग ही होता है।।
क्योंकि मायका आखिर मायका होता है।।

गजल

दर्द महफ़िल में छुपाना रह गया
बेहिसी में मुस्कुराना रह गया
आजमा कर आये हैं रिश्ते सभी
सिर्फ ख़ुद को आजमाना रह गया
साथ में था कारवाँ जिसके कभी
हश्र में तन्हा दिवाना रह गया
मालो ज़र हमने कमाया उम्र भर
इसलिए नेकी कमाना रह गया
पीठ दिखलाना कभी सीखा नहीं
मेरे हिस्से सर कटाना रह गया
हम जहाँ भर को जगाने चल पड़े
और ख़ुद को ही जगाना रह गया
कर चुके सब ही नवाजिश,आपका
सिर्फ़ इक तोहमत लगाना रह गया
___रामेन्द्र

Tuesday, 4 April 2017

शायरी

*जायका अलग है, हमारे लफ़्जो का...
*कोई समझ नहीं पाता... कोई भुला नहीं पाता...*😔


गज़ब की धूप है शहर में
फिर भी पता नहीं,
लोगों के दिल यहाँ
पिघलते क्यों नहीं...!!!


परवाह ही बताती है कि*
*ख़्याल कितना है...*
*वरना कोई तराजू नहीं होता*
*रिश्तो में...!!!!*


 तु कितनी भी खुबसुरत क्यूँ ना हो ए ज़िंदगी..
खुशमिजाज़ दोस्तों के बगैर तु अच्छी नहीं लगती..


 *न हथियार से मिलते हैं न अधिकार से मिलते हैं....!!*

*दिलों पर कब्जे बस अपने व्यवहार से मिलते है....!!*🌹


*वो बुलंदियाँ भी*
*किस काम की जनाब* ,

*इंसान चढ़े और*
*इंसानियत उतर जाये**फितरत किसी की*


*ना आजमाया कर ऐ जिंदगी*।
*हर शख्स अपनी हद में*
*बेहद लाजवाब होता है*..।.

जिंदगी

*_़़़़़वाह री जिंदगी़़़़़़_*

दौलत की भूख एेसी लगी कि कमाने निकल गए!
जब दौलत मिली तो हाथ से रिश्ते निकल गए!
बच्चों के साथ रहने की फुरसत ना मिल सकी!
फुरसत मिली तो बच्चे कमाने निकल गए!

*_़़़़़वाह री जिंदगी़़़़़़_*

मर्दानगी

कैसी ये मर्दानगी ???
.
मैं मर्द अति बलशाली,
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ
कलाई पर बहन जब बांधती है राखी,
तो उसकी रक्षा की कसमें खाता हूँ
पर पत्नी की एक छोटी सी भी गलती,
मैं सह नहीं पाता हूँ
निःसंकोच उस पर हाथ उठाता हूँ
अरे ! मर्द हूँ,
इस तरह अपनी मर्दानगी दिखाता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ.
.
मेरी बहन की तरफ कोई आंख उठा कर तो देखे,
मैं सबसे बड़ा गुंडा बन जाता हूँ
बेझिझक अपराध फैलाता हूँ
पर सड़क पर चल रही लड़की को देखकर,
अपने मनचले दिल को रोक नहीं पाता हूँ
उस पर अश्लील ताने कसता हूँ, सीटियाँ बजाता हूँ
शर्म लिहाज़ के सारे पर्दे कहीं छोड़ आता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ.
.
और गर कोई मेरा दिल तोड़ दे
या मेरे प्रेम प्रस्ताव को कर दे मना,
क्रोध के मैं परवान चढ़ जाता हूँ
एसिड वार की आग उगलता हूँ
उसको अपनी हवस का शिकार बनाता हूँ
और वैसे भी लड़की तो एक वस्तु है
और लड़कों के हर पाप माफ़ हैं,
यही बात मैं मंच पर चढ़कर माइक पर चिल्लाता हूँ
अरे भई! नेता हूँ,
अपने पद की गरिमा भूल जाता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
.
खुद को बहुत बलवान बुलाता हूँ.
पर एक बात मैं अक्सर भूल जाता हूँ
इस कड़वी सच्चाई को झुठलाता हूँ
कि मर्द बनने की नाकाम कोशिश में,
मैं अपनी आत्मा का सौदा करता हूँ
अपनी भावनाओं का खून कर, हर बार मैं मरता हूँ
संवेदनहीन मैं, शायद एक मर्द तो बन जाता हूँ
पर अक्सर मैं एक इंसान बनना भूल जाता हूँ
मैं मर्द अति बलशाली,
अक्सर एक इन्सान बनना भूल जाता हूँ...

Monday, 3 April 2017

इन्सान

”हक़ीकत”
इंसान जब “भगवान” से
लेना हाे तब “लाखों करोड़ों” की चाहत रखता है !!
लेकिन
जब “भगवान ” के लिए देना हो तो ,
जेब में ”सिक्के” ढूँढता है !!:

गजल

ग़ज़ल::=-
जब कमाने में डट गई दुनिया
सच के रस्ते से हट गई दुनिया
दौर यह कैसा आ गया देखो
ज़िंदा लाशों से पट गई दुनिया
देखकर हाल आदमीयत का
मेरे तो दिल की फट गई दुनिया
सिर्फ़ अपना ही फ़ायदा देखो
मंत्र अच्छा ये रट गई दुनिया
दूरियाँ दिल में बढ़ गईं फिर भी
लोग कहते हैं घट गई दुनिया
आदमीयत से तोड़ कर रिश्ता
आज मज़हब में बट गई दुनिया
जब से इंसान में दिमाग़ आया
कितने हिस्सों में कट गई दुनिया
___रामेन्द्र

यादें

हसरतों की बस रवानी रह गई
रास्ते में वो जवानी रह गई
रुख़ हवा का कुछ समझ पाई नहीं
सोचती कुछ जिंदगानी रह गई
उन चहकती चूड़ियों की खुश खनक
याद की बस मेहरबानी रह गयी
कब हुई वर्षा , खिले थे कब कमल
बस सुनाने को कहानी रह गई
उस कली का रंग क्या ,क्या थी महक
सोचती रातों की रानी रह गई
क्यों परी को वक्त ने यों खा लिया
खींजती आकाशवानी रह गई
है रगों में दर्द , सीने में जलन
ज़ख़्म की दिल पर निशानी रह गई
वो
झर कर ,मिला है धूल में
याद की खुशबू सुहानी रह गई

बचपन

एक कविता आप सबको समर्पित ..........।।
~~~~~~~~~~~~~~~
मन की स्याही से,
जिंदगी के पन्नों पर,
मन मीत के लिए ,
कुछ कहने को,
मन करता है ।।

आज एक बार फिर से,
जीवन को बचपन सा,
जीने को मन करता है ।।

उम्मीदे बहुत है ,
स्नेही जिंदगी तुमसे
गर तुम मेरा साथ दो ।।

बचपन मेँ की गई
शेतानियो से अब
डर सा लगता है
आज एक बार फिर से
जीवन को बचपन सा
जीने को मन करता है ।।

ये लो पानी फेर दो ,
जिंदगी के उन पन्नों पर,
जो बचपन से अलग लिखी हो।।

जिसमें उदासी की ही,
कोई नज़्म लिखी हो ,
या फिर से कोई ,
अनमनी गज़ल लिखी हो ।।

अरे कभी तो मुझे
खुश नुमायितो से
साक्षात्कार हो लेने दो ।।

आज फिर से मुझे
उन तमाम यादों के
जालों में मकड़ी बन
होले-होले से हल्का
हो लेने दो ।।

आज एक बार फिर से
जीवन को बचपन सा
जीने को मन करता है।।
∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆∆

Sunday, 2 April 2017

Desh prem

मन समर्पित, तन समर्पित,
और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँ तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन,
किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन-
थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी,
कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण।
गान अर्पित, प्राण अर्पित,
रक्त का कण-कण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
माँज दो तलवार को, लाओ न देरी,
बाँध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी,
भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी,
शीश पर आशीष की छाया धनेरी।
स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित,
आयु का क्षण-क्षण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।
तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो,
गाँव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो,
आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो,
और बाऍं हाथ में ध्वज को थमा दो।
सुमन अर्पित, चमन अर्पित,
नीड़ का तृण-तृण समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ।